इस्तग़राक़ | اِستَغراق
अक्सर लोग इस अवस्था को ग़लती से “कैफ़ियत” कहते हैं, जबकि यह सही नहीं है। (गलतफ़हमी)
ग़रक़ — अर्थात डूब जाना — इसका मूल शब्द है।
मुस्तग़रक़ — वह व्यक्ति जो डूबा हुआ हो; जो इस्तग़राक़ की अवस्था में हो। (संबंधित शब्द)
इस्तग़राक़ वह विस्तारित अवस्था होती है जिसमें एक व्यक्ति “वज्द” में पूरी तरह अल्लाह में लीन हो जाता है। इतनी गहराई से लीन कि उसकी पाँचों इंद्रियाँ निष्क्रिय हो जाती हैं। ऐसे व्यक्ति को अक्सर ग़लती से “मजज़ूब” समझ लिया जाता है। जबकि मजज़ूब और इस्तग़राक़ में एक मुख्य अंतर यह है कि इस्तग़राक़ की अवस्था में व्यक्ति अपने होश को वापस लाने की पूरी क्षमता रखता है, जबकि मजज़ूब अल्लाह की रहमत पर होता है और उसे अपने हालात पर कोई नियंत्रण नहीं होता।
इसी कारण से हज़रत अब्दुल क़ादिर जीलानी (रह.) और हज़रत बाबा ताजुद्दीन (रह.) जैसे बुज़ुर्गों को अक्सर मजज़ूब समझा गया, जबकि वे हमेशा अपने हाल पर अल्लाह की मदद से क़ाबू में रहते थे। हज़रत अली (रज़ि.) का इस्तग़राक़ की अवस्था में सैलाह (नमाज़) के दौरान पहुंच जाना इसी का उदाहरण है। ऐसी गहराई में लीन होते थे कि उनके शरीर से तीर निकाल लिया जाता था और उन्हें तनिक भी शारीरिक पीड़ा नहीं होती थी। (प्रसंग)